मज़हब और फिरका़वारियत

मज़हब और फिरक़ावारियत. .
सैय्यद क़मर अब्बास सिरसीवी, सिरसी, सम्भल, उ.प्र. गुज़रते वक़्त और बदलते हालात के साथ अक्सर हर शै अपने अस्ल मरकज़ से दूर होती जाती है। इसी तरह तहज़ीब और मज़हब में भी बदलाव देखने को मिलतें हैं। समाज का एक हिस्सा ऐसे बदलाव को बेहतरी के नज़रिए से आगे बढ़ाने की कोशिश करता है तो दूसरा हिस्सा पुराने तौर तरीक़ों को बाक़ी रखने का हामी होता है। अगर दोनों नज़रियों को मानने वाले बाइल्म होते हैं तो दलीलों से किसी नतीजे पर पहुंचने की कोशिश करते हैं लेकिन अगर किसी एक नज़रिए के मानने वाले, इल्म और दलील को छोड़कर तादाद और ताक़त को बात मनवाने का ज़रिया मान लेते हैं तो नज़रिए का फर्क़ ज़ाती दुश्मनी में बदल जाता है और एक ही अस्ल को मानने वाले मुख़्तलिफ़ नस्लों में तब्दील हो जाते हैं। मज़हब ए इस्लाम के अलग अलग फिरक़ें इसी पसमंज़र के मंज़र हैं। हुक्मे ख़ुदा और सुन्नते रसूल के एक होने के बावजूद, अलग अलग दौर में इंसानी समझ के अलग अलग मेयार होने की वजह से सुन्नी-शिया तक़्सीम के बाद लगातार तक़्सीमी सिलसिला जारी है। एक नज़रियाती आईने के टुकड़ों में हर शख़्स अपनी अलग तस्वीर देख रहा है और उसी को मुकम्मल नज़रिया समझ कर कुल्लियाती नतीजे भी दे रहा है। अगर कोई शख़्स दूसरे टुकड़ों में दिखाई दे रही तस्वीरों को जोड़कर मुकम्मल नज़रिए को समझने की कोशिश करता है तो अक्सरियत उसे अपने मेयार के मुताबिक़ एक नये नज़रिए का नाम देकर आगे बढ़ा देती है। इल्म को दलील की बुनियाद बनाकर ख़ुद को सही साबित करने की रविश छोड़कर, अक़ीदे को दलील बनाकर दूसरे गिरोहों को शिद्दत से बुरा साबित करने की आदत ने नज़रिए के फर्क़ को हथियारों की लड़ाई में तब्दील कर दिया जिसके नतीजे में हुक्मे ख़ुदा और सुन्नते रसूल को पसे पुश्त डाल कर अपने नज़रिए को इस्लाम के नाम पर मनवाने के लिए बेगुनाहों का क़त्ल जायज़ क़रार दिया गया जिसकी आग, अमन और इंसानियत के पैकर, रसूल ए इस्लाम के घर तक पहुंची। बहरहाल इस मौज़ू के दायरे को थोड़ा और समेटकर, दीने इस्लाम के एक फ़िरक़े में वक़्त के साथ साथ बनने वाले मुख़्तलिफ़ गिरोहों पर बात शुरू करते हैं और समझने की कोशिश करते हैं कि मक्का, मदीना, नजफ़ और करबला की सरज़मीन से एक ही ख़्याल को बुलन्द करने वाला अक़ीदा किस तरह पहले इस्माइली, दाऊदी, अस्ना अशरी में तक़्सीम होते हुए मरजईयत, अख़बारियत, मलंगियत जैसे गिरोहों में बंट चुका है। अगर एक ही ख़ुदा, एक ही क़ुरान और एक ही रसूल को मानने के साथ साथ विलायत ए अली को मानना अक़ीदा ए शि'अत है तो ये आगे बने गिरोह किन बुनियादों पर वुजूद में आयें हैं। तारीख़ के पन्नों को ग़ैर जानिबदारी से पलटते हुए ग़ौर करने पर एक बात बार बार ज़हन में उभरती है कि निज़ाम ए इलाही के मुताबिक़ पूरी ज़िन्दगी जीने वाले और उसकी हिफाज़त के लिए मौत को ख़ुशी ख़ुशी गले लगाने वाले अफराद के इंक़लाबी उसूलों और बेदार करने वाले आमाल पर बात करने और उन्हें अपनी ज़िन्दगी में उतारने से ज़्यादा तवज्जो उन शख़्सियात के वज़न को साबित करने और उनसे ज़ाती दुनियावी फायदे हासिल करने पर दी जाती है। दूसरे लफ़्ज़ों में कहा जाये तो शख़्सियत पसंदी को इताअत की मंज़िल तक ले जाने वाले सख़्त और ख़ुश्क़ रास्ते को छोड़ कर, शख़्सियत परस्ती के नर्म लेकिन दलदली रास्ते पर चलने की ग़लती हमेशा एक नये गिरोह को पैदा कर देती है। मौजूदा हालात में एक बार फिर ओहदों की तरतीब में पैदा होने वाले ख़लल ने क़ौम को तक़सीम के दोराहे पर खड़ा कर दिया है और आम इंसान, ज़हनी कमज़ोरी या कम इल्मी की बुनियाद पर नूरानी दर्जात के सिलसिले पर ख़ाक़ी ओहदों को तरजीह देने की ग़लती कर रहा है। इस्लामी उसूलों के मुताबिक़, इबादत के लायक़ सिर्फ एक ख़ुदा है और उसके बाद हिदायत के सिलसिले की सबसे बड़ी हस्ती रसूल ए इस्लाम हैं जिनकी बराबरी की हैसियत किसी और ज़ात की नहीं है। उन्होंने अपने बाद हिदायत के लिए ख़ुदा की किताब और अपने अहले बैत को मज़बूती से पकड़े रहने की ताकीद की थी जिसे उनके दुनिया से रुख़्सत होने के पचास साल के अंदर ही भूला दिया गया था और उनकी नस्ल को पीढ़ी दर पीढ़ी ज़ुल्म, ज़हर और तलवार का निशाना बनाया गया क्योंकि इस्लाम के नाम पर हुकूमत करने वालों को हमेशा हिदायत करने वालों से ख़ौफ़ रहता था जबकि इस्लाम की हक़ीक़त ही ये है कि वो हुकूमतों के मुक़ाबले हिदायतों के सिलसिले पर ज़ोर देता है। इस्लाम से दुनिया को आशना कराने वाले रसूल की पूरी दुनियावी हयात हिदायतों में गुज़र गई लेकिन इस्लाम को मानने का दावा करने वाली हुकूमतें, हिदायत करने वाली रसूल की नस्ल से ख़ौफ़ खाकर ज़ुल्म की ताक़त आज़माती रहीं। रसूल की नस्ल के एक ख़ास सिलसिले के बाद आम सिलसिले ने हिदायत की ज़िम्मेदारी को समझा और मेहनत से हासिल इल्म को अमल में उतारकर ख़ामोशी से उम्मत को वक़्त ए ज़रुरत हिदायतें देते रहें। लेकिन इक्कीसवीं सदी की शुरुआत से हिदायतों के इस मज़बूत सिलसिले में हुकूमत की एक अजीबोग़रीब सेंध लगाई गई और हिदायत के लिए हुकूमत की ज़रूरत पर ज़रूरत से ज़्यादा ज़ोर दिया गया जिसके दायरे को बढ़ाने के लिए बेहिसाब दौलत ख़र्च की गई और की जा रही है जिस पर ऐतराज़ करने वालों पर शिद्दत पसंद गिरोह हर तरह से हमलावर हो रहा है लेकिन दूसरी तरफ, ख़ुदा की रज़ा और रसूल की ख़ुशनुदी को पेशे नज़र रखने वाले ज़िम्मेदारान आज भी ख़ामोशी से हिदायत के काम को अंजाम दे रहे हैं जिसके नतीजे में दुनिया में सुकून और अमन चाहने वाले दूसरे मज़ाहिब के बड़े ज़िम्मेदारान भी इन्हीं ख़ामोश हादियों से मिलने उनके घरों तक जा रहे हैं। बात को ठहराव देते हुए कहा जा सकता है कि माबूद ए वाहिद की पहचान कराकर इंसानी ज़िन्दगी के मक़सद तक पहुंचने का रास्ता और तरीक़ा बताने वाले रसूल की हदीस ए सक़लैन को ज़हन में रखकर विलायत के सिलसिले की हिदायतों को अमल में उतारते रहने का अस्ल नाम ही इस्लाम है। इस सिलसिले की तमाम हिदायतों को अलग अलग दौर में दोहराने वाले बा अमल उलेमा क़ाबिल ए एहतराम है और इनकी ख़ामोश मेहनतों से इत्तेफाक़ रखने वाले अफराद हमेशा अमल और इताअत को अपनी ज़िन्दगी का मक़सद बनाते हैं और किसी भी शिद्दत से दरगुज़र करते हैं। ✒✒✒ वस्सलाम तालिब ए इस्लाह Qamar Abbas Sirsivi

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